- रंजीत बनर्जी -
ज़िन्दगी के हर दर दायरा है लकीरों का |
समाज, परिवार, धर्म, राष्ट्र बंट गया लकीरों के दरारो में |
कुछ लकीरें हमने खिंची और कुछ बिरासत में मिली |
उभर न सके इन लकीरों से, फंसते गए हम इन दरारों में |
ज़िन्दगी ने दिल, दिमाग और जिगर पर इतनी लकीरें खिंची,
कि उलझते चले गए हम, इन लकीरों में |
अब तो कोई लकीर भी नजर नहीं आता,छाया घना अँधेरा है |
इन उलझे लकीरों में भटकती खोज है,
उन लकीरों का, जो मेरे मालिक ने मुझे दी थी |
© Ashok Dhar
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